Environmental Sensitivity through Spirituality: माँ पृथ्वी के सम्मान से जुड़ी आध्यात्मिक सोच
Environmental Sensitivity through Spirituality: पृथ्वी केवल अंतरिक्ष में घूमता हुआ एक निर्जीव ग्रह नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत और चेतन्य संरचना है जिसे भारतीय संस्कृति में ‘माँ’ का दर्जा दिया गया है। प्राचीन हिंदू और जनजातीय सभ्यताओं ने सदियों पहले यह समझ लिया था कि पृथ्वी, नदियाँ, पेड़, पशु-पक्षी और प्रकृति की हर इकाई पूजनीय है। यही कारण है कि इन सभी को देवी-देवताओं की तरह सम्मानित किया जाता रहा है।
आध्यात्मिकता से जुड़कर जागेगा प्रकृति के प्रति अपनापन
गुरुदेव श्री श्री रविशंकर के अनुसार, जब हम अपने भीतर करुणा, संवेदनशीलता और पवित्रता का भाव जगाते हैं, तो वह व्यवहार में झलकता है और प्रकृति के प्रति आदर का रूप लेता है। अगर किसी नदी को देवी मानकर पूजा जाता है, तो उसका अपमान या प्रदूषण असंभव हो जाता है। यही भावना जब व्यापक बनती है, तब किसी कानून या सख्ती की आवश्यकता नहीं पड़ती।
प्रकृति से जुड़ाव, संतुलन और संवेदनशीलता की नींव रखता है
श्रद्धा केवल भावनात्मक दृष्टिकोण नहीं, बल्कि यह चेतना को कर्म में बदलने वाली शक्ति है। जब हम प्रकृति को पवित्र मानते हैं, तब पेड़ों को काटना, जल स्रोतों को प्रदूषित करना या संसाधनों का अत्यधिक दोहन करना हमें गलत लगता है। यह संवेदनशीलता स्वाभाविक रूप से आती है, जब हम अपने भीतर ईश्वर को, अपने आसपास के तत्वों में पहचानते हैं।
प्रदूषण का प्रारंभ बाहरी नहीं, बल्कि मानसिक होता है
गुरुदेव के अनुसार प्रदूषण का आरंभ केवल फैक्ट्रियों या वाहनों से नहीं होता, बल्कि मानसिकता से होता है। जब मन नकारात्मकता, लालच और तनाव से भर जाता है, तब वह प्रकृति के प्रति असंवेदनशील हो जाता है। यह आंतरिक दरिद्रता ही पर्यावरण की सबसे बड़ी शत्रु है।
सतत विकास तभी संभव है जब हम प्रकृति को साथ लेकर चलें
विकास का वास्तविक उद्देश्य केवल भौतिक उन्नति नहीं, बल्कि जीवन के हर रूप को समर्थन देना होना चाहिए। अगर हम अंधाधुंध संसाधनों का दोहन करते हैं, तो यह धरती के जीवन-चक्र को नुकसान पहुँचा सकता है। सतत विकास का अर्थ है – ऐसा विकास जो जीवन का समर्थन करे, उसका पुनरुत्थान करे और उसे टिकाऊ बनाए।
प्रकृति से सीखने की आवश्यकता है
प्रकृति स्वयं एक शिक्षक है। जब हम जंगलों या प्राकृतिक वातावरण में जाते हैं, तो वहाँ का संतुलन और स्वच्छता हमें यह सिखाती है कि जीवन को कैसे संतुलित और शुद्ध रखा जाए। मिट्टी के कीड़े, पशु-पक्षी और पाँचों तत्व – सब मिलकर एक अद्भुत समरसता बनाए रखते हैं।
आर्ट ऑफ लिविंग की पर्यावरण पहल एक जागरूक साधक की संवेदनशीलता का परिणाम है
श्री श्री रविशंकर बताते हैं कि आर्ट ऑफ लिविंग संस्था ने अब तक नदियों का पुनर्जीवन, 100 मिलियन से अधिक वृक्षारोपण, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने जैसे कई कार्य किए हैं। ये सभी पहलें किसी नियम के दबाव में नहीं, बल्कि आध्यात्मिक चेतना से जाग्रत हुए साधकों की संवेदनशीलता से उपजी हैं।
निष्कर्ष
श्रद्धा और चेतना से ही होगा पृथ्वी का संरक्षण संभव
धरती को बचाने के लिए केवल नियम-कानून और तकनीकी उपाय पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा, जहाँ प्रकृति को माता के रूप में देखा जाता था। जब हम श्रद्धा के साथ प्रकृति की ओर देखते हैं, तब हमारी हर क्रिया में सजगता और संतुलन आ जाता है। यही वह रास्ता है जिससे हम आने वाली पीढ़ियों को एक स्वच्छ, सुरक्षित और संतुलित पृथ्वी दे सकते हैं।